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स्वयं से साक्षातकार
मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.
हर तट पर खुद को त्यागता हूँ,प्रतिपल कोई उपवास कर-कर.
राग -द्वेष-क्लेश त्यागा मोह का उपवास बाकि.
तब कही जाकर ,हौले, मन में एक आशा जगी.
की ढूंड लूँगा उस सत्य को जिसे सब है मोक्ष कहते.
जिसकी खोज में प्रतिपल ,ना जाने कितने जीव बहते.
ऐसे ही एक जीव बस रहा है मेरे अन्दर .
मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.
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