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प्रकृति का संघर्ष


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ये जो जल रहि है.
लम्बी चिम्निओं से,
लम्बे -लम्बे मकानों से.
डब्बे में बंद धुंए से,
और जहर बेचते दुकानों से.
 रंग देखो रंग बदलकर ,
कह रहा है अब बदल जा.
सब हरा अब कला हुआ,
ए मनुज तू अब सम्हल जा.
मर चुकें है अब वो जंगल.
किताबों में बहती है नदिया.
तारे भी गुम हो गए है.
जिनने देखि कितनी सदियाँ.
हवा मनो रुक चुकि है,
बहते बहते थक चुकी है.
थक चुकी उस संघर्ष से,
संघर्ष उस काले धुए से,
संघर्ष उस खली कुँए से.
संघर्ष उन चमकते नोटों से.
संघर्ष और केवल संघर्ष.
 अगर सब कुछ न रुका.
सोया मनुज अब तू न  जगा.
तो प्रलय होगा अति भयंकर.
तांडव जेसे करते शंकर.
थम जा.
रुक जा.
ए मनुज तू अब सम्हल ........







प्रेम का वो राग


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उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.
की गीत खुद ही बन उठे और बन उठा प्यारा समां.
अब मौन मेरा झूम कर,गीत नया ये गता है.
बहती पवन वीणा बजती ,फिर मेघ गुनगुनाता है.
कल-कल बहती उस नदी का कैसा मादक श्रृंगार है.
न आर है ना पार है,न ये राग मल्हार है.
धक-धक धड़कता हृदय अब कर रहा है अनमना.
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना. 

हर रात लम्बी.दिन तनिक सा.
चल रहा मैं एक मस्त पथिक सा.
सनसनाती वो हवाए जब कानो को छू जाती है.
तब कहीं वो दिवानी मीरा याद आती है.
उस अदृश्य प्रेम की सुन्दरता ,भला कौन करता है मना
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.

प्रेम करता हूँ मैं तुमसे ,प्रेम जो व्याख्या परे.
आकाश का है रंग इसका,कैसे इसे विस्मृत करें.
चाहे रिक्तता हो,या हो मस्जिद या चाहे हो शिवाला.
चाहे प्रेमिका की गोद हो,या भले हो भरी मधुशाला.
ब्राम्हण की अनंता में,कण-कण इससे है सना.
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.

छोटी सी आशा..




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जब देखता हूँ,
उन नन्हे हाथों को.
जिनकी सीमाये बस दो कदम है.
जिनके सपनो में गूंजता है,
टूटते मकानों का शोर,
जिनके खिलौनों का रंग,
धूमिल हो जाता  है,जब होती है भोर..
जिनका व्योम छत है.
संघर्षो से बना वो दुर्गम पथ है.
कुछ पुराने कपडे की चाह ऐसी,
धुन्द में एक आश जैसी.
मन भर उठता है,
फिर सोचता हूँ उस दृष्य को मैं,
जब एक नया सवेरा होगा,
एक सवेरा आशा का,
इक सवेरा उम्मीद का..
इक सवेरा सपनो का.
इक सवेरा अपनों का.
पर ज्योंही अगली गली में जाता हूँ.
इतिहास फिर से आता है.
नाचता -अट्टहास करता,जोर - जोर वो गता है.
की वो अमर है..वो निडर है.
बोहत लम्बा उसका सफ़र है.
हर गली -बस्ती गाँव में,
हर चाय की दुकान पर,
हर नए बनते माकन पर.
हर उस लम्बी सड़क पर,
वो मुरझाया चेहरा और वही पुराना शोर....



पीड़ित कवी




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तपित ताप की ज्वाला में,
हृदय तरु मेरा जल रहा था.
विचलित-विलाक्षित कवित्व मेरा,
तम में मनो गल रहा था.
प्रबल ज्योति ज्वलित जल-जल,
व्योम के निचे अकेला .
हृदय की इस रिक्तता में,
मैं तो जैसे चल रहा था.

स्वयं से साक्षातकार







मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.
हर तट पर खुद को त्यागता हूँ,प्रतिपल कोई उपवास कर-कर.
राग -द्वेष-क्लेश त्यागा मोह का उपवास बाकि.
तब कही जाकर ,हौले, मन में एक आशा जगी.
की ढूंड लूँगा उस सत्य को जिसे सब है मोक्ष कहते.
जिसकी खोज में प्रतिपल ,ना जाने कितने जीव बहते.
ऐसे ही एक जीव बस रहा है मेरे अन्दर .
मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.


डर




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मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.
हवा बदली बदली सी थी,शायद कोई आ रहा था .
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया ,आहटें बनने लगी.
हृदय धक धक करने लगा और  मन में एक शंका जगी.
कौन आखिर कौन है जो हर वक़्त मुझको देखता है.
मैं अकेला वो अकेला ,फिर भी उसमे एकता है.
धीरे- धीरे ,हौले -हौले ये भ्रम मुझे सता रहा था .
मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.



 हृदय जैसे रुक चूका था वैसे रुक गया विवेक मेरा .
 विचलिता बढ़ने लगी ,ज्यों -ज्यों बढ़ता गया अँधेरा .
  रैन के उस मौन में भी अट्टहास ऐसा लगा.
कहीं कोई कुरूप-विकृत  सोया हुआ दानव जगा.
चीखने लगा ,रोने लगा उस भय में मैं खोने लगा.
आत्मा मेरी द्वन्द में थी ,ये द्वन्द कब होने लगा.
विलक्षण अभिनय डर का वो था ,जो मुझे हरा रहा था.
मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.





शब्दों का श्रृंगार


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छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
मैं तो यौवन खो दूंगा ,ये कविता होगी अडीक यहीं.
शब्दों का श्रृंगार कर ये दुल्हन जैसे सज रही है.
कल्पना के वस्त्र धर ये स्वयं से कुछ कह रही है.
कभी हया कभी खुलापण सोचती है क्या है ये सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .

      

                           घोलती है ,तोलती है ,सरे जहाँ को बोलती है.
                             फिर कहीं सुस्ता कर अपनी पोटली खोलती है.
                             कोई इस पर हस रहा ,कोई कहता है ये पगली .
                             कोई तो आलोचना कर,कह रहा ये कौन जंगली.
                             वयोग,करुणा,प्रेम ,कटुता भाव सारे है वही.
                             छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .



मंच को ये चूमती है,दस दिसाये गूंजती है.
फिर कहीं अट्टहास कर ये मुझ से आकर पूछती है.
की मैं उसके प्रेम को हर जगह क्यूँ बेचता हूँ.
उसके जरिये लोगों की झूठी प्रशंसा खेचता हूँ.
कविता मेरी प्रेमिका है,प्रेम भले भौतिक सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .



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