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प्रकृति का संघर्ष

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ये जो जल रहि है.
लम्बी चिम्निओं से,
लम्बे -लम्बे मकानों से.
डब्बे में बंद धुंए से,
और जहर बेचते दुकानों से.
 रंग देखो रंग बदलकर ,
कह रहा है अब बदल जा.
सब हरा अब कला हुआ,
ए मनुज तू अब सम्हल जा.
मर चुकें है अब वो जंगल.
किताबों में बहती है नदिया.
तारे भी गुम हो गए है.
जिनने देखि कितनी सदियाँ.
हवा मनो रुक चुकि है,
बहते बहते थक चुकी है.
थक चुकी उस संघर्ष से,
संघर्ष उस काले धुए से,
संघर्ष उस खली कुँए से.
संघर्ष उन चमकते नोटों से.
संघर्ष और केवल संघर्ष.
 अगर सब कुछ न रुका.
सोया मनुज अब तू न  जगा.
तो प्रलय होगा अति भयंकर.
तांडव जेसे करते शंकर.
थम जा.
रुक जा.
ए मनुज तू अब सम्हल ........







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