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मैं लिखता हूँ...
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मैं लिखता हूँ..
उन रंगों को ,
जो छू से जाते है.
उन सपनो को,
जो दिन में आते है.
उन अलग - थलग पड़े शब्दों को.
जिन्दा करने के लिए...
मैं लिखता हूँ.
नदी के पास बैठकर
या फिर कोई मधुशाले में.
या समसान के मौन में.
या फिर वो भरे शिवाले में .
मैं लिखता हूँ.
एक नयी खोज के लिए .
खोज अगले भाव का.
खोज खुली उस नाव का.
जो स्वछंद है उस सागर मे.
बस एक चाह है,
कुछ कोरे पन्नो की.
और श्याह से भरे बोतल की .
फिर अनंत एकांत की.
क्यूंकि
मैं लिखता हूँ..
तुम्हे बारिश गीली करती,
पर मैं बूंदों पे लिखता हूँ.
टिप टिप गिरते नाचते बूंदों पे..
तुम गिरते पत्तों पर क्रोध आता है,
पर मैं उसके धरा के मिलन पर लिखता हूँ.
मैं उस बुजुर्ग पे लिखता हूँ,
जिससे तुम्हे घृणा है.
पर मैं उसके झुर्रियों पर लिखता हूँ.
जिसने न जाने कितने सावन देखे है.
उन सरे सावन पे लिखता हूँ.
कभी हसकर ,कभी रोकर .
बस
मैं लिखता हूँ ,
आजाद होकर.....
शब्दों की आजादी के लिए लिखता हूँ.
मैं लिखता हूँ..
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