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शब्दों का श्रृंगार
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छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
मैं तो यौवन खो दूंगा ,ये कविता होगी अडीक यहीं.
शब्दों का श्रृंगार कर ये दुल्हन जैसे सज रही है.
कल्पना के वस्त्र धर ये स्वयं से कुछ कह रही है.
कभी हया कभी खुलापण सोचती है क्या है ये सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
घोलती है ,तोलती है ,सरे जहाँ को बोलती है.
फिर कहीं सुस्ता कर अपनी पोटली खोलती है.
कोई इस पर हस रहा ,कोई कहता है ये पगली .
कोई तो आलोचना कर,कह रहा ये कौन जंगली.
वयोग,करुणा,प्रेम ,कटुता भाव सारे है वही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
मंच को ये चूमती है,दस दिसाये गूंजती है.
फिर कहीं अट्टहास कर ये मुझ से आकर पूछती है.
की मैं उसके प्रेम को हर जगह क्यूँ बेचता हूँ.
उसके जरिये लोगों की झूठी प्रशंसा खेचता हूँ.
कविता मेरी प्रेमिका है,प्रेम भले भौतिक सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
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