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अपरिभाषित प्रेम





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प्रेम ही तो किया था,
खुद जैसे किसी से.
बस परिभाषा भूल गया.
राधा की कभी चाह न थी,
इक  रोज़ कान्हा दिखा,
सांसे रुकी,
ह्रदय थमा.
जैसे,जल में जल घुल गया.
मैं परिभाषा भूल गया.....!

क्यूँ मुझे धुत्कारते हो,
मेरी हसी उतारते हो,
कभी ख़ुदा का भय दिखाकर ,
लाल आँखों से निहारते हो,
ना मैं पागल हूँ,
ना ही  कोई क्रन्तिकारी,
ना ही ये कोई पाप है.
ना कोई गन्दी बीमारी.
बस मैंने प्रेम किया है,
खुद जैसे किसी और से,
चीख-चीख कर देखो केसे रुल गया हूँ,
मैं परिभाषा भूल गया हूँ.


जब तुम चिड़ियाघर जाकर,
शेर को देखते हो,
और रोमांच और आकर्षण में बहकर,
लम्बी लम्बी फेकते हो
की शेर कितना सुन्दर है.
इस आकर्षण की "परिभाषा" कहाँ गयी,
कहाँ गयी वो घृणा .
क्यूंकि तुम अकेले नहीं,
जिसे शेर पसंद है ,शेरनी नहीं.
जिसे मोर पसंद है,मोरनी नहीं.
मुझे पता है.
तुममे भी तो इक "मैं" हूँ.
आज तुम्हारे बंधन से खुल गया हूँ,
मैं पारिभाषा भूल गया हूँ..







4 comments:

Unknown said...

Haa Mein Is kavika ko padhkar apni kavitao ki paribhasha bhul gaya hun....

Nitin said...

thank you for your comment ! a appreciate it ..

My Cactus Dress said...

Every single word here is beautiful.

Nitin said...

thank you Dhara :)

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