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मैं लिखता हूँ...


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मैं लिखता हूँ..
उन रंगों को ,
जो छू से जाते है.
उन सपनो को, 
जो दिन में आते है.
उन अलग - थलग पड़े शब्दों को.
जिन्दा करने के लिए...
मैं लिखता हूँ.
नदी के पास बैठकर
या फिर कोई मधुशाले में.
या समसान के मौन में.
या फिर वो भरे शिवाले में .
मैं लिखता हूँ.
एक नयी खोज के लिए .
खोज अगले भाव  का.
खोज खुली उस नाव का.
जो स्वछंद है उस सागर मे.
बस एक चाह है,
कुछ कोरे पन्नो की.
और श्याह से भरे बोतल की .
फिर अनंत एकांत की.
क्यूंकि
मैं लिखता हूँ..
तुम्हे बारिश गीली करती,
पर मैं बूंदों पे लिखता हूँ.
टिप टिप गिरते नाचते बूंदों पे..
तुम गिरते पत्तों पर क्रोध आता है,
पर  मैं उसके धरा के मिलन पर लिखता हूँ.
मैं उस बुजुर्ग पे लिखता हूँ,
जिससे तुम्हे घृणा है.
पर मैं उसके झुर्रियों पर लिखता हूँ.
जिसने न जाने कितने सावन देखे है.
उन सरे सावन पे लिखता हूँ.
कभी हसकर ,कभी रोकर .
बस
मैं लिखता हूँ ,
आजाद होकर.....
शब्दों की आजादी के लिए लिखता हूँ.
मैं लिखता हूँ..








प्रेम युद्ध :P





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कभी तू लडती है ,
तो कभी मैं लड़ता हूँ.
पर लड़ाई के इस क्षितिज पर,
केवल प्रेम करता हूँ.
छोटी बातें मोटी बनकर,
शब्द ,वाक्य से छंद बन गए.
" तू-तू,मैं -मैं " के  गीतों के ,
देखो कैसे तीर तन गए.
नयन तुम्हारे नृत्य है करते,
तरह -तरह के रूप ये धरते.
शब्दों के सारे हथगोले ,
मुख पर आकर यूँ थम गए,
की अगर युद्ध हुआ,
तो शामत आई.
नहीं हुआ,
तो आफ़त आई.
आफ़त मुह फूलाने की,
आफ़त रूठ जाने की.
आफ़त आंसू बहाने की.
और बात-बात पे बात बनाने की.
""की "तुम कितना लड़ते हो."
हर बात पे   झगड़ते हो.
मेरी सहेली के पिया देखो,
कितना प्रेम उसे करता है.""
कैसे कहूँ तुम्हे की,
वो बेचारा उससे डरता है.
पर फिर भी,
जब भी तुम गुस्सा होती हो,
ये प्रेम मेरा और बढ़ता है.
उन बड़ी आँखों के गीले पन का,
एक अकेला डर लगता है.
टिप-टिप गिरते  उस बूंदों से.
कसम से बोहत डरता हूँ.
कभी तू लडती है ,तो कभी मैं लड़ता हूँ.
पर लड़ाई के इस क्षितिज पर,
केवल प्रेम करता हूँ.



वो भोर फिर से आएगी...



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उस नन्ही चिड़ियाँ को,
ना डर ढलती शाम से.
शायद उसे पता है ,
वो भोर फिर से आएगी .
आशा की पहली किरण से   ,
वो लम्बी रात ढल जाएगी.
सुबह का संगीत फिर से,
नए राग लेकर आएगा.
नए साज़ छिड़ से जाएँगे,
फिर हौले गुनगुनाएगा.
की जाग और जगा जगत को,
जिसे डर है उस  रात का.
रात से जुडी हर बात का.
बिच में छूटने वाले उन सरे हाथ का.
सच्चे - झूटे हर उस साथ का.
जो सिर्फ दिन में जिन्दा है.
मौन - विकलांग सपने सा.
मारीच से  किसी अपनो सा.
पर लम्बे सपने भी तो छणिक है,
दिखती भले लम्बी हो,
पर ये रात सच में तनिक है.
उगते सूरज के साथ ,
झट यूँ गायब हो जाएँगे.
वो चिड़ियाँ फिर काम पे जाएगी.
क्यूंकि उसे पता है,
वो  भोर फिर से आएगी........












अन्तर्जातीय विवाह


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कल सिर्फ मैं था और तुम थी ,
आज ये जात कहा से आ गयी.
तब हम थे ,हमारे सपने थे.
अब उंच-नीच की बात कहा से आ गयी.
 मुझे पता है तुम रोती हो,
छुप-छुप कर उन रातों में,
बीते लम्हों के साए में,
और कुछ चंद पुरानी बातों में.
मैं आऊंगा,तुझको लेने फिर.
हरी चूडिया और पायल के साथ.
तेरे पापा से कुछ बातें होंगी.
फिर मांगूंगा तेरा हाथ.
फिर वही पुरानी रातें होंगी.
और वही चाय के दो कप.
वही सुहाने सपने होंगे.
और करेंगे रात भर गप.
तू क्यूँ रोती है ,
ए पगली तू चुप  हो जा.
मैं आऊंगा.
लौट आऊंगा.




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