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क्रांति आती नहीं,लाई जाती है..



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क्रांति आती नहीं,लाई जाती है...
मशालों को जलाकर..
पडोसी को जगाकर..
आहटों को शोर बना कर...
पहाड़ों को आँखें दिखा कर.

तुम इसे विद्रोह कहते हो.
मैं इसे इश्क कहता हूँ.
इश्क इक मकसद से.
इश्क जीत की फिदरत से.
इश्क भोर की आशा से.
इश्क बदलाव की परिभाषा से..

तुम इसे साजिस कहते हो..
मैं इसे संघर्ष कहता हूँ.
संघर्ष कुछ विचारो से.
संघर्ष शब्द और नारों से.
संघर्ष  आज़ाद सोच  की..
संघर्ष खुद के खोज की..

तुमे इसे पागलपन कहते हो.
मैं इसे दीवानापन कहता हूँ.
दीवानगी कुछ कर जाने की.
दीवानगी खून बहाने की.
दीवानगी भीड़ से भाग जाने की.
और मौन को चीख बनाने की.

बस अब वक़्त आ गया है..
मिल कर आवाज़ उठाने की.
क्रांति के संख नाद की.
और जा जा कर सबको बताने की.
की मसाले तैयार कर लो..
इक अन्तिम प्रहार है.
ना आर है ,ना पार है..
सिर्फ शेर की दहाड़ है...

न किसी पाठशाले में पढाई जाती है..
क्रांति आती नहीं,लाई जाती है...











सब फीका है



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तुम बिन सब फीका है.
सब रंग .
सारे राग .
रात की गहराई.
और सांझ का चिराग.
विरह का संगीत  देखो कितना तीखा है.
सब फीका है.
वो किशोर के गीत.
"ना मिला रे मन का मीत"
वो शाम की चाय,
और गोल-गप्पो का स्वाद.
सब फीका है.
अब बस निहारता हूँ,
कुछ पुराने पन्नो को.
चंद पुरानी बातों को .
और कुछ घायल सपनो को.
लोगों से घीरा हूँ,
फिर भी अकेला.
इस बावरे मन को देखो,
कितना कुछ इसने सीखा है.
सब फीका है.










अपरिभाषित प्रेम





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प्रेम ही तो किया था,
खुद जैसे किसी से.
बस परिभाषा भूल गया.
राधा की कभी चाह न थी,
इक  रोज़ कान्हा दिखा,
सांसे रुकी,
ह्रदय थमा.
जैसे,जल में जल घुल गया.
मैं परिभाषा भूल गया.....!

क्यूँ मुझे धुत्कारते हो,
मेरी हसी उतारते हो,
कभी ख़ुदा का भय दिखाकर ,
लाल आँखों से निहारते हो,
ना मैं पागल हूँ,
ना ही  कोई क्रन्तिकारी,
ना ही ये कोई पाप है.
ना कोई गन्दी बीमारी.
बस मैंने प्रेम किया है,
खुद जैसे किसी और से,
चीख-चीख कर देखो केसे रुल गया हूँ,
मैं परिभाषा भूल गया हूँ.


जब तुम चिड़ियाघर जाकर,
शेर को देखते हो,
और रोमांच और आकर्षण में बहकर,
लम्बी लम्बी फेकते हो
की शेर कितना सुन्दर है.
इस आकर्षण की "परिभाषा" कहाँ गयी,
कहाँ गयी वो घृणा .
क्यूंकि तुम अकेले नहीं,
जिसे शेर पसंद है ,शेरनी नहीं.
जिसे मोर पसंद है,मोरनी नहीं.
मुझे पता है.
तुममे भी तो इक "मैं" हूँ.
आज तुम्हारे बंधन से खुल गया हूँ,
मैं पारिभाषा भूल गया हूँ..







मैं लिखता हूँ...


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मैं लिखता हूँ..
उन रंगों को ,
जो छू से जाते है.
उन सपनो को, 
जो दिन में आते है.
उन अलग - थलग पड़े शब्दों को.
जिन्दा करने के लिए...
मैं लिखता हूँ.
नदी के पास बैठकर
या फिर कोई मधुशाले में.
या समसान के मौन में.
या फिर वो भरे शिवाले में .
मैं लिखता हूँ.
एक नयी खोज के लिए .
खोज अगले भाव  का.
खोज खुली उस नाव का.
जो स्वछंद है उस सागर मे.
बस एक चाह है,
कुछ कोरे पन्नो की.
और श्याह से भरे बोतल की .
फिर अनंत एकांत की.
क्यूंकि
मैं लिखता हूँ..
तुम्हे बारिश गीली करती,
पर मैं बूंदों पे लिखता हूँ.
टिप टिप गिरते नाचते बूंदों पे..
तुम गिरते पत्तों पर क्रोध आता है,
पर  मैं उसके धरा के मिलन पर लिखता हूँ.
मैं उस बुजुर्ग पे लिखता हूँ,
जिससे तुम्हे घृणा है.
पर मैं उसके झुर्रियों पर लिखता हूँ.
जिसने न जाने कितने सावन देखे है.
उन सरे सावन पे लिखता हूँ.
कभी हसकर ,कभी रोकर .
बस
मैं लिखता हूँ ,
आजाद होकर.....
शब्दों की आजादी के लिए लिखता हूँ.
मैं लिखता हूँ..








प्रेम युद्ध :P





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कभी तू लडती है ,
तो कभी मैं लड़ता हूँ.
पर लड़ाई के इस क्षितिज पर,
केवल प्रेम करता हूँ.
छोटी बातें मोटी बनकर,
शब्द ,वाक्य से छंद बन गए.
" तू-तू,मैं -मैं " के  गीतों के ,
देखो कैसे तीर तन गए.
नयन तुम्हारे नृत्य है करते,
तरह -तरह के रूप ये धरते.
शब्दों के सारे हथगोले ,
मुख पर आकर यूँ थम गए,
की अगर युद्ध हुआ,
तो शामत आई.
नहीं हुआ,
तो आफ़त आई.
आफ़त मुह फूलाने की,
आफ़त रूठ जाने की.
आफ़त आंसू बहाने की.
और बात-बात पे बात बनाने की.
""की "तुम कितना लड़ते हो."
हर बात पे   झगड़ते हो.
मेरी सहेली के पिया देखो,
कितना प्रेम उसे करता है.""
कैसे कहूँ तुम्हे की,
वो बेचारा उससे डरता है.
पर फिर भी,
जब भी तुम गुस्सा होती हो,
ये प्रेम मेरा और बढ़ता है.
उन बड़ी आँखों के गीले पन का,
एक अकेला डर लगता है.
टिप-टिप गिरते  उस बूंदों से.
कसम से बोहत डरता हूँ.
कभी तू लडती है ,तो कभी मैं लड़ता हूँ.
पर लड़ाई के इस क्षितिज पर,
केवल प्रेम करता हूँ.



वो भोर फिर से आएगी...



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उस नन्ही चिड़ियाँ को,
ना डर ढलती शाम से.
शायद उसे पता है ,
वो भोर फिर से आएगी .
आशा की पहली किरण से   ,
वो लम्बी रात ढल जाएगी.
सुबह का संगीत फिर से,
नए राग लेकर आएगा.
नए साज़ छिड़ से जाएँगे,
फिर हौले गुनगुनाएगा.
की जाग और जगा जगत को,
जिसे डर है उस  रात का.
रात से जुडी हर बात का.
बिच में छूटने वाले उन सरे हाथ का.
सच्चे - झूटे हर उस साथ का.
जो सिर्फ दिन में जिन्दा है.
मौन - विकलांग सपने सा.
मारीच से  किसी अपनो सा.
पर लम्बे सपने भी तो छणिक है,
दिखती भले लम्बी हो,
पर ये रात सच में तनिक है.
उगते सूरज के साथ ,
झट यूँ गायब हो जाएँगे.
वो चिड़ियाँ फिर काम पे जाएगी.
क्यूंकि उसे पता है,
वो  भोर फिर से आएगी........












अन्तर्जातीय विवाह


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कल सिर्फ मैं था और तुम थी ,
आज ये जात कहा से आ गयी.
तब हम थे ,हमारे सपने थे.
अब उंच-नीच की बात कहा से आ गयी.
 मुझे पता है तुम रोती हो,
छुप-छुप कर उन रातों में,
बीते लम्हों के साए में,
और कुछ चंद पुरानी बातों में.
मैं आऊंगा,तुझको लेने फिर.
हरी चूडिया और पायल के साथ.
तेरे पापा से कुछ बातें होंगी.
फिर मांगूंगा तेरा हाथ.
फिर वही पुरानी रातें होंगी.
और वही चाय के दो कप.
वही सुहाने सपने होंगे.
और करेंगे रात भर गप.
तू क्यूँ रोती है ,
ए पगली तू चुप  हो जा.
मैं आऊंगा.
लौट आऊंगा.




प्रकृति का संघर्ष


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ये जो जल रहि है.
लम्बी चिम्निओं से,
लम्बे -लम्बे मकानों से.
डब्बे में बंद धुंए से,
और जहर बेचते दुकानों से.
 रंग देखो रंग बदलकर ,
कह रहा है अब बदल जा.
सब हरा अब कला हुआ,
ए मनुज तू अब सम्हल जा.
मर चुकें है अब वो जंगल.
किताबों में बहती है नदिया.
तारे भी गुम हो गए है.
जिनने देखि कितनी सदियाँ.
हवा मनो रुक चुकि है,
बहते बहते थक चुकी है.
थक चुकी उस संघर्ष से,
संघर्ष उस काले धुए से,
संघर्ष उस खली कुँए से.
संघर्ष उन चमकते नोटों से.
संघर्ष और केवल संघर्ष.
 अगर सब कुछ न रुका.
सोया मनुज अब तू न  जगा.
तो प्रलय होगा अति भयंकर.
तांडव जेसे करते शंकर.
थम जा.
रुक जा.
ए मनुज तू अब सम्हल ........







प्रेम का वो राग


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उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.
की गीत खुद ही बन उठे और बन उठा प्यारा समां.
अब मौन मेरा झूम कर,गीत नया ये गता है.
बहती पवन वीणा बजती ,फिर मेघ गुनगुनाता है.
कल-कल बहती उस नदी का कैसा मादक श्रृंगार है.
न आर है ना पार है,न ये राग मल्हार है.
धक-धक धड़कता हृदय अब कर रहा है अनमना.
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना. 

हर रात लम्बी.दिन तनिक सा.
चल रहा मैं एक मस्त पथिक सा.
सनसनाती वो हवाए जब कानो को छू जाती है.
तब कहीं वो दिवानी मीरा याद आती है.
उस अदृश्य प्रेम की सुन्दरता ,भला कौन करता है मना
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.

प्रेम करता हूँ मैं तुमसे ,प्रेम जो व्याख्या परे.
आकाश का है रंग इसका,कैसे इसे विस्मृत करें.
चाहे रिक्तता हो,या हो मस्जिद या चाहे हो शिवाला.
चाहे प्रेमिका की गोद हो,या भले हो भरी मधुशाला.
ब्राम्हण की अनंता में,कण-कण इससे है सना.
उस राग की चाह ना थी,पर साज़ कुछ ऐसा बना.

छोटी सी आशा..




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जब देखता हूँ,
उन नन्हे हाथों को.
जिनकी सीमाये बस दो कदम है.
जिनके सपनो में गूंजता है,
टूटते मकानों का शोर,
जिनके खिलौनों का रंग,
धूमिल हो जाता  है,जब होती है भोर..
जिनका व्योम छत है.
संघर्षो से बना वो दुर्गम पथ है.
कुछ पुराने कपडे की चाह ऐसी,
धुन्द में एक आश जैसी.
मन भर उठता है,
फिर सोचता हूँ उस दृष्य को मैं,
जब एक नया सवेरा होगा,
एक सवेरा आशा का,
इक सवेरा उम्मीद का..
इक सवेरा सपनो का.
इक सवेरा अपनों का.
पर ज्योंही अगली गली में जाता हूँ.
इतिहास फिर से आता है.
नाचता -अट्टहास करता,जोर - जोर वो गता है.
की वो अमर है..वो निडर है.
बोहत लम्बा उसका सफ़र है.
हर गली -बस्ती गाँव में,
हर चाय की दुकान पर,
हर नए बनते माकन पर.
हर उस लम्बी सड़क पर,
वो मुरझाया चेहरा और वही पुराना शोर....



पीड़ित कवी




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तपित ताप की ज्वाला में,
हृदय तरु मेरा जल रहा था.
विचलित-विलाक्षित कवित्व मेरा,
तम में मनो गल रहा था.
प्रबल ज्योति ज्वलित जल-जल,
व्योम के निचे अकेला .
हृदय की इस रिक्तता में,
मैं तो जैसे चल रहा था.

स्वयं से साक्षातकार







मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.
हर तट पर खुद को त्यागता हूँ,प्रतिपल कोई उपवास कर-कर.
राग -द्वेष-क्लेश त्यागा मोह का उपवास बाकि.
तब कही जाकर ,हौले, मन में एक आशा जगी.
की ढूंड लूँगा उस सत्य को जिसे सब है मोक्ष कहते.
जिसकी खोज में प्रतिपल ,ना जाने कितने जीव बहते.
ऐसे ही एक जीव बस रहा है मेरे अन्दर .
मैं स्वयं को ढूँढता हूँ,एक शिथिल सी नदी बनकर.


डर




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मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.
हवा बदली बदली सी थी,शायद कोई आ रहा था .
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया ,आहटें बनने लगी.
हृदय धक धक करने लगा और  मन में एक शंका जगी.
कौन आखिर कौन है जो हर वक़्त मुझको देखता है.
मैं अकेला वो अकेला ,फिर भी उसमे एकता है.
धीरे- धीरे ,हौले -हौले ये भ्रम मुझे सता रहा था .
मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.



 हृदय जैसे रुक चूका था वैसे रुक गया विवेक मेरा .
 विचलिता बढ़ने लगी ,ज्यों -ज्यों बढ़ता गया अँधेरा .
  रैन के उस मौन में भी अट्टहास ऐसा लगा.
कहीं कोई कुरूप-विकृत  सोया हुआ दानव जगा.
चीखने लगा ,रोने लगा उस भय में मैं खोने लगा.
आत्मा मेरी द्वन्द में थी ,ये द्वन्द कब होने लगा.
विलक्षण अभिनय डर का वो था ,जो मुझे हरा रहा था.
मैं अकेला जा रहा था ,गीत कोई गा रहा था.





शब्दों का श्रृंगार


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छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .
मैं तो यौवन खो दूंगा ,ये कविता होगी अडीक यहीं.
शब्दों का श्रृंगार कर ये दुल्हन जैसे सज रही है.
कल्पना के वस्त्र धर ये स्वयं से कुछ कह रही है.
कभी हया कभी खुलापण सोचती है क्या है ये सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .

      

                           घोलती है ,तोलती है ,सरे जहाँ को बोलती है.
                             फिर कहीं सुस्ता कर अपनी पोटली खोलती है.
                             कोई इस पर हस रहा ,कोई कहता है ये पगली .
                             कोई तो आलोचना कर,कह रहा ये कौन जंगली.
                             वयोग,करुणा,प्रेम ,कटुता भाव सारे है वही.
                             छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .



मंच को ये चूमती है,दस दिसाये गूंजती है.
फिर कहीं अट्टहास कर ये मुझ से आकर पूछती है.
की मैं उसके प्रेम को हर जगह क्यूँ बेचता हूँ.
उसके जरिये लोगों की झूठी प्रशंसा खेचता हूँ.
कविता मेरी प्रेमिका है,प्रेम भले भौतिक सही.
छन भर का कवी हूँ,पर कविता मेरी छणिक नहीं .



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